कवि, कविता और यथार्थ: एक समालोचना
सुशील द्विवेदी एक युवा कवि , लेखक और ‘हस्तांक’ पत्रिका के संपादक भी है। इनकी पहली कविता 2011 में प्रकाशित हुई थी, इसके बाद 2012 में गुफ्तगू द्वारा आयोजित काव्य प्रतियोगिता विजेता और सम्मानित भी किया गया। लगभग कविता लिखते हुए नौ वर्ष हो रहे हैं। जल्दी लेखन शुरु करने से लम्बे समय तक सहित्य में अपना सक्रिय योगदान दे पायेंगे।
गांव से शहर का सफर कई कठिनाइयों के बाद मुमकिन होता है। फिर भी न गाँव पीछे रहता है न ही शहर की फिज़ा अपनी हो पाती है। इस उतार चढ़ाव से उपजे आत्मबोध में सुशील की कविताएं कुछ ऐब्स्ट्रैक्ट वाक्य बनाती हैं । कभी — कभी वास्तविकता को खोजती दिखाई देती हैं।
‘अन्तिम बूंद’ में जहां हम मृत्यु रूपी अन्याय को मूक बन कर देखते हैं पर ‘आह’ के साथ साथ आत्म बोध का विकास सहज होता है। कविता पाठ के उपरांत एक ज़िंदगी के निकास के साथ कहीं एक दूसरी जगह जीवन के प्रवेश यानी ‘जन्म’ का एहसास होता है। परन्तु जन्म सरल नहीं होते मृत्यु की ही भान्ति।
सुशील की दूसरी कविता ‘भैंस की प्रसव वेदना’ उस गहन प्रसव की मन्द पीड़ा का एहसास है जो किसी बड़े नुक्सान के उपरांत इन्सान को मानसिक रूप से सकुशल होने पर सहनी होती है। यदि यह मान्यता है कि पुरुष इससे अंजान हैं, तो यह दूसरी कविता पढ़ना चाहिये।
पर खैर नये कवि हैं अनुभव होंगे आगे कई! ऐसी उम्मीद की जा सकती है। कविता को या तो और यथार्थवादी करेगा या फिर शायद किसी नए symbolism का सृजन करेगा। देश और समाज को दूसरे की आवश्यक्ता ज़्यादा है!
कविता पाठन से पाठक की सोच कविता से एक सन्धि करती है। भारतिया संस्कृति में योग एक ऐसी मानव चित्त की दृष्टी है जो व्यक्ति की सोच का विकास करती है। यहाँ कविता कहीं पीछे रहती मालुम होती है। समन्वय जो इनके गांव की फिलोसफी भी है, क्या शहर में अपनी जगह बना पायेगी!? परंतु कवि को इसकी चेष्टा ना कर बस शब्दों और विचारों को खोजना चाहिये। क्योंकि कुुुछ कार्य पाठक और आलोचक के भी होने चाहिये।
मैं उन्हे बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने पर बधाई देती हुँ और आगे बढने के लिये मेरी ओर से प्रोत्साहन और आशीर्वाद।
अंतिम बूंद
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टप टप टप टप….
गिरती हुई रक्त की बूंदें
नली के सहारे
तुम्हारी देह में चढ़ रही हैं
बाहर बार-बार मंडराते बाज — कौए
भागती बिल्लियां
हवाओं का धीरे-धीरे बहना
मेरी आत्मा के व्याकुल,विपुल रश्मिपुंज में
मेघों की स्वेत लडियों का चुपचाप टूटना
असंख्य तारों को ठंडा कर जाता है
प्रेम में मौन तीव्र आकर्षण का जनक है, जननी भी।
शब्दों के डूबते उतराते
घर्षण प्रतिकर्षण में
प्रेम की तलाश करते रहे ताउम्र…
तुम्हारी उंगलियों के बीच में
फंसी मेरी उंगलियाँ
आँखों में टंगी आँखे
प्रेम की छटपटाहट को शांत कर देती हैं
अस्पताल में फैली सनसनाहट
डाॅक्टरों और सिस्टर्स का धीरे-धीरे नेपथ्य में जाना
जैसे तुम्हारे जाने की सूचना दे रहो हों
तुम्हारे पायदान में बैठा
तुम्हें बचा लेने और खो देने के बीच
बोतल में बची अंतिम रक्त बूंद की तरह
अटक गया हूँ….
फिर लौट आओ तुम
लौट आओ
लौ ट् आ…
आ३…….
भैंस की प्रसव वेदना
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मघा की बारिशें
नरियाते,कुलांछे भरते-भरते
थक चुकी थी
अब दूर-दूर तक थिर जलभराव था
जैसे पहली बार भैंस थिराई थी
सीमांत के घर भैंसों का थिराना अरुणाभ होना है
पूर्वा की अँधेरी रात
हवाओं का सायं-सायं चलना
दीया में चुपचाप ‘गाँदी’ का गिरना,
और दीये का जल-बुझ उठना
टिड्डों, झींगुरों,मेघों,साँपों का तांडव रौ
विपश्यना में भी भय कर देते हैं।
बाहर छपरे के नीचे,
गाभिन भैंस का बार-बार खुराव
लार टपकना, चिल्लाना,पूँछ पटकना
प्रसव की रात यातनापूर्ण और सबसे लम्बी होती है
बिटिया का चूल्हे में गाढ़ी आग से दीया बारना,
पुरही काकी का दीया लेकर चुपचाप देखना
बखरी से धान निकालना लड़के का,
और भैंस को खिलाना
काका का बांस की पत्ती काटना,
और रख देना भैंस के आगे …
बियाती भैंस की वेदना सबको कर्मठ बना देती है..
थनों में दूध का तीव्र कसाव
पेशाब, आंवर का धीरे धीरे गिरना
भैंस का कभी उठना, कभी बैठना
पुरही काकी को रुला देती है
वह कभी देवी को मनाती है,
कभी कुलदेवता को।
कभी सवा सेर लड्डू चढ़ाने,
जल चढ़ाने ,
जलहरी भरने के लिए कहती है,
कभी उपवास रखने को।
स्त्रियाँ अनकही वेदना भी सुन लेती हैं
बहुत देर बाद
भैंस ने पडिया जना
बहुत देर बाद
पुरही काकी मुस्कुराई
बहुत देर बाद गदेलों ने
पडिया पालने का सपना देखा
सबने पडिया को छुआ,
पुचकारा, सरसों का तेल पियाया
किसी ने नाम दिया,
किसी ने काला सोंटा बाँधा
पुरही काकी बड़ी देर तक देखती रही
फिर जोर से कहा — अमावस में चांद उग आया है
© सुशील द्विवेदी